इस्लाम में नमाज़ की फज़ीलत और अहमियत
Namaz ki Fazilat aur Ahmiyat
नमाज़ का वक्त (समय)
इस्लामी इबादत में नमाज़ को सबसे इम्तियाज़ी (अलग) मक़ाम हासिल है।
इस इम्तियाज़ी शान की वजह से अल्लाह ताला ने नमाज़ की फरज़ियत (फ़र्ज़ होने का हुक्म) शब-ए-मेराज (मेराज की रात) में पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को आसमानों पर बुलाकर अता किया।
यह (मेराज) का वाकिया हिजरत से पहले मक्का मुअज़्ज़मा में पेश आया।
जिसके वक्त (समय) के बारे में कहावतें अलग-अलग हैं,
इमाम नवावी ने रसूलुल्लाह (स.अ.व) के नबी होने के पांचवें वर्ष यानी हिजरत से आठ साल पहले वाली बात को ज़्यादा सही करार दिया है।
(शरह नववी अला मुस्लिम: 01/91)
पवित्र कुरान में अल्लाह तबारक व ताला फ़रमाते है:
अनुवाद:- क्यों नहीं? जिसने अपना चेहरा अल्लाह तआला के आगे झुका दिया और वो नेक अमल (अच्छे काम) करने वाला हो,
तो उसके लिये उसके रब (अल्लाह तआला) के पास उसके (अच्छे) कामों का बदला है और उन पर ना कोई खौफ (डर) होगा और ना वो ग़मगीन (दुखी) होंगे।
इस आयत के अनुसार, जो कोइ भी नमाज़ या किसी अन्य प्रकार की इबादत इखलास से करता है और इबादत से संबंधित शर्तों और आदाब के साथ करता है,
तो उसे अल्लाह के यहां उसको अपना अज्र (इनाम, सवाब) मिलेगा,
बस बन्दों को चाहिए कि इखलास और खुशू व खुज़ू (नम्रता और समर्पण) और तमाम आदाब और शर्तों के साथ इबादत करता रहे,
इस उम्मीद (आशा) के साथ करें कि अल्लाह मेरी इबादत ज़रूर कबूल करेगा।
उसके आगे का काम उसका नहीं है कि यह जांच करना उसकी ज़िम्मेदारी नहीं है कि अल्लाह ने उसकी वह इबादत कबूल की है या नहीं?
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जनाब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
नमाज़ दीन का सुतून (स्तंभ) है।
(शुआबूल-ईमान-लिल-बाइहाक़ी: 03/35)
और कुछ फुकहा-ए-किराम ने इससे आगे यह जुमला भी बढ़ाया कि “जिसने उसे (नमाज़ को) क़ायम (स्थापित) किया, उसने दीन (धर्म) को क़ायम रखा,
और जिसने उसे ज़ाया (नष्ट) किया, उसने दीन (धर्म) को नष्ट कर दिया।
(कश्फुल-खफ़ा 02/28)
एक रिवायत में है कि
“इस्लाम और कुफ्र के बीच इम्तियाज़ (अंतर) करने वाली चीज़ नमाज़ है”।
(मुस्लिम शरीफ़: 01/61)
यानी जो आदमी नमाज़ पढ़ता है वह एक इस्लामी अलामत (चिन्ह) अपने सीने से लगाए हुए है।
और जो व्यक्ति नमाज़ नहीं पढ़ता वह कुफ्र (अविश्वास) का अमल कर रहा है।
और नमाज़ न पड़कर काफिरों की नकल कर रहा है।
बहुत सी हदीसों में, नमाज़ को सबसे अच्छे अमल (कर्मों) में से एक बताया गया है,
क्योंकि अल्लाह को एक बन्दे की तरफ़ से आजिज़ी (विनम्रता) और बंदगी (गुलामी) का इज़हार (अभिव्यक्ति) सबसे ज़्यादा पसंद है।
और नमाज़ की हालत में एक बन्दा अपने आका (रब) और मालिक के दरबार में जिस तरह अपनी ज़िल्लत (रुसवाई) और आजिज़ी (विनम्रता) दर्शाता है,
यह तरीका किसी और इबादत में नहीं पाया जाता है।
हाथ का बांधना, हम्द व सना (अल्लाह का प्रशंसा) करना, रुकू में सिर झुकाना, फिर सजदा में जाकर सभी अंगों को ज़मीन पर झुकाना।
यह सब मालिकों का मालिक सर्वशक्तिमान अल्लाह के सामने आजिज़ी और ज़िल्लत (विनम्रता और रुसवाई) के अन्दाज़ हैं, जो अल्लाह को हद से ज़्यादा पसंद हैं।
मैदान मोहशर में इबादत के सिलसिले में सबसे पहले नमाज़ की ही पूछताछ होगी।
एक हदीस में है कि हज़रत पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:-
“क़यामत के दिन सब से पहले बन्दा से नमाज़ का हिसाब लिया जाएगा।
अगर नमाज़ सही निकली तो बाकी आमाल भी सही होंगे।
और अगर नमाज़ ही में कमी कोताही निकली तो बाकी आमाल तो इससे भी ज़्यादा ख़राब होंगे।
(अत-तरगी़ब वत-तरहीब 01/150)
इसलिए हर मुस्लिम मर्द और औरत पर फ़र्ज़ और लाज़िम है कि वह नमाज़ में किसी भी तरह की कोताही न बरतें।
सफ़र या मर्ज़ (यात्रा या बीमारी) के कारण नमाज़ में कुछ कमी तो हो सकती है, लेकिन किसी भी हालत (स्थिति) में माफ़ी नहीं है।
अगर आप खड़े होकर नहीं पढ़ सकते तो बैठ कर पढ़ें, रुकू सजदा करने में असमर्थ हैं तो इशारे (संकेत) से पढ़ें, लेकिन पढ़ना ज़रूरी है।
अफसोस की बात है कि यह फ़र्ज़ आज जितना अहम और महत्वपूर्ण है, आज उम्मत का बहुमत इससे उतना ही बेखबर है,
इस गफलत को तोड़ने के लिए घर-घर में नमाज़ का माहौल बनाना जरूरी है,
और बच्चा बच्चा को इसका आदी (आदत) बनाना ज़रूरी और अनावश्यक है,
ताकि उम्मत शांति और समृद्धि और कामयाबी की राह पर चल सकें।
ये सारी बातें “किताबुल-मसाइल” नामी किताब से ली गई हैं।
लेखक: मुफ़्ती सलमान साहब मंसूरपुरी।
पूर्व शिक्षक: जामिया क़ासमिया मदरसा शाही मुरादाबाद।
वर्तमान शिक्षक: जामिया दारुल उलूम देवबंद, उत्तर प्रदेश, भारत।
अस्सलामु अलैकुम।
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मेरा नाम मोहम्मद नजामुल हक है, मैं एक इस्लामी मदरसे का शिक्षक हूं।
मैं मदरसा शिक्षा के साथ-साथ ऑनलाइन इस्लामिक लेख भी लिखता हूं, ताकि लोगों को सही ज्ञान मिल सके।
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